ख़ुद के साथ कम कठोर बनेंदीवाश्री सिन्हा अपने मेंमीन-मेख निकालने की प्रवृत्ति को इजाज़त न दें कि वो आपको किसी बेचैन उजाड़ चीज़ में बदल के रख दे। आइये देखते हैं कि नकारात्मकता से कैसे लड़ना है।हमारे शरीर के बारे में एक-दो चीज़ें ऐसी होती हैं, जिनमें हम परिवर्तन लाना चाहते हैं।जबकि, कुछ लोग दूसरों की तुलना में अधिक विशिष्ट होते हैं, कुछ ऐसे भी हैं जो अपने बारे में हद से कहीं ज़्यादा आलोचनात्मक हो सकते हैं। चाहे वह 5 किलो वज़न हो जो आपको घटाना है, जिसके चलते आप अपनी दिखावट के लिए एक भी नेक नीयत वाली प्रशंसा नहीं स्वीकार कर पा रहे हैं, या यह तथ्य कि आपको अपने बच्चे के जन्मदिन के लिए केक ख़रीदना पड़ता है, बजाय कि आप ख़ुद उसे बनायें। कारण मामूली से लगते हैं, लेकिन सज़ा उतनी ही भोगनी होती है।विशेषज्ञों के मुताबिक, ये चुभते हुए आत्मयाभियोगकारी लक्षण रडार के दायरे से बचे रहते हैं, जब तक ये व्यक्तित्व की विशेषता न बन जाएँ और भावनात्मक रूप से कोई हानिकारक मोड़ न ले लें। नैदानिक मनोवैज्ञानिक श्वेता कन्सारा उन दोषों को पहचानने और उनपर क़ाबू पाने में मदद करती हैं, जो आप अपने भीतर देखते हैं।लोगों में, आलोचनात्मक होने की प्रवृत्ति को मोटे तौर पर दो समूहों में वर्गीकृत किया जा सकता है। वे जिनमें एक आंतरिक नियंत्रण बिंदुपथ या लोकस (एक मानसिक मध्यिका) होता है, और वे जिनके लिए यह बाहरी होता है। एक सामान्य व्यक्ति के लिए, नियंत्रण बिंदुपथ या लोकस संतुलित होना चाहिए और मध्य में कहीं स्थित होना चाहिए। जिनमें यह बाहरी होता है,उन लोगों के पास हर ग़लत होती चीज़ के लिए ज़िम्मेदार ठहराने को एक बाहरी कारक होता है।उदाहरण के लिए,यदि ऐसे व्यक्तियों में से कोई किसी परीक्षा में ख़राब प्रदर्शन करता है,तो वे कागज से लेकरशिक्षक तक सब को दोष देंगे, लेकिन ख़ुद को नहीं।इसके विपरीत, जो लोग आंतरिक तौर पर लेते हैं, वे आश्वस्त और ग़ैर-आश्वस्त दोनों तरह की चीज़ों के लिए ख़ुद को दोषी ठहराते हैं। उनके लिए, हर नकारात्मक स्थिति उनकी गलती होती है और वे ख़ुद को व्यक्तिगत रूप से ज़िम्मेदार ठहराते हैं।एक नकारात्मक व्यक्तित्व के संयोजन में यह व्यक्तित्व-विशेषता, एक ख़तरनाक संयोजन होतीहै। यह वह स्थिति है जब एक व्यक्ति बहुत संकट में होता है और ख़ुदसे पराजित सा हो जाता है। उनका आत्मसम्मान प्रभावित होता है और किसी सुरक्षा तंत्र के रूप में, वे किसी और के द्वारा लक्षणों को पढ़ने का मौका मिलने से पहले ही, खुद पर हावी होने लगते हैं।कन्साराके अनुसार, इसके लिए कुछ खतरे के झंडों को ज़िम्मेदार ठहराया जा सकता है।शुरुआती तौर पर,वे लोग जो आत्म-आलोचक हैं, उनमें लगातार दूसरों के साथ ख़ुद की तुलना करने की आदत होती है।उनकी सफलता या विफलता का पैमाना, सीधे इसपर निर्भर करता है कि दूसरों की तुलना में वे कैसा महसूस करते हैं। वे महज़ शिकायत ही नहीं करते बल्कि लगातार दूसरों के सामने खुद को कमतर आंकते रहते हैं।इस आत्म घृणा का इस्तेमाल, कभी-कभी सहानुभूति हासिल करने की एक तकनीक के रूप में भी किया जाता है। छोटे आत्मसम्मान की भावना से पीड़ित होते हुए, वे खुद को लगातार नकारात्मक बताते हैं और इस तथ्य को दोहराते हैं कि वे किसी प्रकार का निश्चित कार्य हासिल करने में सक्षम नहीं हो पाएंगे।इस तरह के बयान, जैसे कि,'मुझे लगता है मैं यह करने के लिए योग्य नहीं हूँ,” या 'मैं इसे पूरा करने में कभी सक्षम नहीं हो पाऊंगा, इसलिए यही अच्छा है कि मैं इसमें पढ़ाई ही न करूं,' बहुत आम से होते हैं।जो लोग ज़्यादा ही खुलकर आत्म-आलोचना करते हैं, आमतौर पर वे परिपूर्णतावादी होते हैं।उन्हें हर चीज़ में सर्वश्रेष्ठ होने की ज़रुरत होती है, वरना वे अलग-थलग रहना ही सबसे सही समझ बैठते हैं।'कुछ नहीं से कुछ बेहतर” का फ़लसफ़ा उनके साथ सहमत होता नज़र नहीं आता। दूसरी ओर, ऐसे भी लोग होते हैं जो अपनी आलोचनात्मक विशेषताओं का उपयोग, किसी तरह की ज़िम्मेदारी से बचे रहने में करते हैं।वे ख़ुद से कम उम्मीदें रखते हैं और परिणामस्वरूप आमतौर पर कम प्रदर्शन और समझौता करते हैं।वे कभी भी, अपनी सर्वश्रेष्ठ क्षमता के बराबर प्रदर्शन नहीं कर पाते, इस डर से कि वे उतने क़ाबिल नहीं हैं जितना होना चाहिए।बीतते समय के साथ परिणाम यह कि, ये नकारात्मक स्वीकारोक्तियां निराशावादी दृष्टिकोण के साथ मिलकर, एक तरह का व्यक्तित्व बनतीहैं और फिर एक आदत में बदल जाती हैं।वे आदतन ख़ुद को नीचा दिखाने की ओर झुके होते हैं और सरलतम कार्यों को भी ठीक ढंग से अंजाम नहीं देते। कन्सारा कहती हैं कि, ऐसे लोग हर किसी से सकारात्मक पुनःस्वीकारोक्तियां ही पाने में लगे रहते हैं और अपने आसपास के लोगों से उनके अच्छे कर्मों पर आश्वस्त कराते रहने की अपेक्षा करते हैं। इस अवस्था को उपजने वाला एक जाना-पहचाना ख़तरा एक भावनात्मक भंवर में उतरना है जो कि आमतौर पर अवसाद और चिंता पर ख़त्म होता है। ज़िम्मेदारी लीजिये। जबकि यहाँ बहुत सारे ऐसे ही हैं जो अति आत्म आलोचना से पीड़ित हैं, कन्सारा इन प्रवृत्तियों को पहचानने और सुधारने के कुछ गुर सुझाती हैं। -अपने आप को सही-सही नामित करें। स्वयं से नकारात्मक संदर्भ निकाल दें और उन्हें सकारात्मक अभिपुष्टि में बदल दें। 'मुझे लगता है मैं यह नहीं कर सकता/सकती,”यह कुछ यूँ होना चाहिए, 'शायद मैं इसे पूरा करने की कोशिश कर सकता/सकती हूँ' - खुद के लिए यथार्थवादी लक्ष्य निर्धारित करें। उन्हें छोटा रखें ताकि उन्हें हासिल करना, आपको प्रेरणा लेने में मदद करे। -उन विचारों को पहचानो जो तर्कहीन लगते हैंऔर नकारात्मक भविष्य की आशंका से खुद को रोकें। जहां पर कोई यूँ कहेगा, “क्योंकि मैं नहीं सोचता कि मैं इस परियोजना को पूरा कर सकूंगा, मैं अपना नाम इसके लिए सामने नहीं रखूंगा। -'होना चाहिए' जैसे शब्दों को “करना चाहिए” में बदल देना चाहिए।अवचेतन रूप से, कुछ करना “चाहना” कहीं अधिक उत्साहवर्धक और प्रेरणादायक होता है।
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